स्वप्न मेरे: अप्रैल 2013

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

वक़्त के आगे भला किसकी चली है ...


घर की देहरी से कहां बाहर गई है 
नीव का पत्थर ही बन के माँ रही है 

बचपने में डांट के रोती थी खुद भी 
अब नहीं वो डांटती मुझको कभी है   

घर न लौटूं तो कभी सोती नहीं थी 
अब वो ऐसी सोई की उठती नहीं है 

दुःख के लम्हे छू नहीं पाए कभी भी  
घर में जब तक साथ वो मेरे रही है  

रोक लेता मैं अगर ये बस में होता 
वक़्त के आगे भला किसकी चली है 

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

घर की हर शै गीत उसी के गाती है ...


कई मित्रों का आग्रह था की गज़ल नहीं लिखी बहुत समय से ... इसलिए प्रस्तुत है एक गज़ल ... विषय तो वही है जिसकी स्मृति हमेशा मन में सहती है ... 

सुख दे कर वो दुःख सबके ले आती है
अम्मा चुपके से सबको सहलाती है

कर देती है अपने आँचल का साया 
तकलीफों की धूप घनी जब छाती है

अपना दुःख भी दुःख है, याद नहीं रखती 
सबके दुःख में यूं शामिल हो जाती है

पहले बापू की पत्नी, फिर मेरी माँ
अब वो बच्चों की दादी कहलाती है

सुख, दुःख, छाया, धूप यहीं है, स्वर्ग यहीं
घर की देहरी से कब बाहर जाती है

सूना सूना रहता है घर उसके बिन 
घर की हर शै गीत उसी के गाती है  

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

सुकून की तलाश ...


कितना सुकून देता है उन सड़कों पे लौटना 
जहां लिखा करते थे खडिया से अपना नाम कभी   
हाथ बढा के आसमान को छू लेने का होंसला लिए 
गुज़र जाता था वक़्त 
समय पे अपने निशान छोड़ता 

यही तो थी वो सड़क जहां तूने चलना सिखाया था 
वादियों से वापस आती अपनी ही आवाज़ें हम सफर होती हैं 
कोई साथ न हो तो भी परछाइयां साथ देती हैं 
तूने ही तो कहा था 

तभी तो इस तन्हा सफर मे तन्हाइयों का एहसास 
डस नहीं पाया, डरा नहीं पाया       

वैसे भी तेरे कहे के आगे, मैंने सोचा नहीं 

सच पूछो तो उन ब्रह्म-वाक्यों के सहारे 
जीवन कितना सहज हो जाता है, अब तक महसूस कर रहा हूं 

अपने छिले हुए घुटनों को देख 
बढ़ जाती है शिद्दत, उन तमाम रस्तों पे लौटने की 
चाहता हूं वहां उम्र के उस दौर में जाना   
जब फिर से किसी की ऊँगली की जरूरत हो मुझे 
  
मैं जानता हूं तुम्हारी ऊँगली नहीं मिलने वाली माँ 
पर तेरा अक्स लिए 
मेरी बेटी तो है उन सड़कों पे ले जाने के लिए ... 
     

बुधवार, 3 अप्रैल 2013

कुछ बेवजह की बातें ...


लगा तो लेता तेरी तस्वीर दीवार पर 
जो दिल के कोने वाले हिस्से से 
कर पाता तुझे बाहर 

कैद कर देता लकड़ी के फ्रेम में 
न महसूस होती अगर    
तेरे क़दमों की सुगबुगाहट   
घर के उस कोने से 
जहां मंदिर की घंटियाँ सी बजती रहती हैं    

भूल जाता माँ तुझे 
न देखता छोटी बेटी में तेरी झलक 
या सुबह से शाम तेरे होने का एहसास कराता   
अपने अक्स से झांकता तेरा चेहरा 
  
की भूल तो सकता था रौशनी का एहसास भी   
जो होती न कभी सुबह 
या भूल जाता सूरज अपने आने की वजह   

ऐसी ही कितनी बेवजह बातों का जवाब 
किसी के पास नहीं होता