स्वप्न मेरे: कभी भी ... कुछ भी ...

सोमवार, 5 जनवरी 2015

कभी भी ... कुछ भी ...

गौर से देखा मैंने चाँद , फिर तारे, फिर तुम्हें और फिर अपने आप को ... कुछ भी बदला हुआ नहीं लगा ... हवा, बादल, रेत, समुंदर, सडकें ... सब थे पर बदला हुआ कुछ भी नहीं था ... पर फिर भी था ... कुछ तो था पिछले दिनों ... हालांकि नया सा तो कुछ भी नहीं हुआ था पर सब लोग कह रहे थे नया साल आ गया ... क्या सचमुच ... और क्यों ...

वजह तो कुछ भी नहीं
पर अच्छा लगता था बातों के बीच अचानक तेरा रुक जाना
धीरे से मुस्कुराना
एक टक देखना फिर जोर से खिलखिलाना
मैं जानता था
वजह तो उसकी भी नहीं थी

पता होते हुए भी
कि तपते रेगिस्तान में नहीं आते मुसाफिर
खिलते हैं कैक्टस पे फूल पीले हो चुके काँटों के साथ
वजह तो उसकी भी नहीं होती

वजह तो सागर की छाती पे बरसती बरसात की भी नहीं होती
और ठक ठक गिरते ओलों की तो बिलकुल भी नहीं

तुम नहीं आओगी जैसे गुज़रा वक्त नहीं आता
टूटे ख्वाब आँखों में नहीं आते
फिर भी इंतज़ार है की बस रहता ही है
वजह तो कुछ भी नहीं

आस्था को तर्क पे तोलना
जंगली गुलाब में तेरा अक्स ढूंढना
वजह तो कुछ भी नहीं

वजह तो कुछ भी नहीं
नया साल भी हर साल आता है
बेइंतिहा तुम भी याद आती हो 

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