स्वप्न मेरे: 2017

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

बचा कर के टांगें निकलना पड़ेगा ...

नया वर्ष आने वाला है ... सभी मित्रों को २०१८ की बहुत बहुत शुभकामनाएं ... २०१७ की अच्छी यादों के साथ २०१८ का स्वागत है ... 

ये किरदार अपना बदलना पड़ेगा
जो जैसा है वैसा ही बनना पड़ेगा

ये जद्दोजहद ज़िन्दगी की कठिन है
यहाँ अपने लोगों को डसना पड़ेगा

बहुत भीड़ है रास्तों पर शिखर के
किसी को गिरा कर के चलना पड़ेगा

कभी बाप कहना पड़ेगा गधे को
कभी पीठ पर उसकी चढ़ना पड़ेगा

अलहदा जो दिखना है इस झुण्ड में तो  
नया रोज़ कुछ तुमको करना पड़ेगा

यहाँ खींच लेते हैं अपने ही अकसर 
बचा कर के टांगें निकलना पड़ेगा 

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

रो रही हैं आज क्यों फिर पुतलियाँ ...

छत भिगोने आ गईं जो बदलियाँ
शोर क्यों करती हैं इतना बिजलियाँ

आदमी शहरों के ऐसे हो गए
चूस कर छोड़ी हों जैसे गुठलियाँ

फेर में कानून के हम आ गए
अब कराहेंगी हमारी पसलियाँ

हाथ में आते ही सत्ता क्या हुआ
पी गईं सागर को खुद ही मछलियाँ

उँगलियों की चाल, डोरी का चलन
जानती हैं खेल सारा पुतलियाँ

खुल गया टांका पुराने दर्द का 
रो रही हैं आज क्यों फिर पुतलियाँ 

सोमवार, 11 दिसंबर 2017

या फिर हमें भी इक चराग़ लेने दो ...

फूलों की कैद से पराग लेने दो
इन तितलियों से कुछ सुराग लेने दो

इस दौड़ में कहीं पिछड़ न जाएं हम
मंजिल अभी है दूर भाग लेने दो

राजा हो रंक पेट तो सताएगा
उनको भी तो चूल्हे से आग लेने दो

नज़दीक वो कभी नज़र न आएंगे
सोए हुए हैं शेर जाग लेने दो

हम आस्तीन में छुपा के रख लेंगे
इस शहर में हमको भी नाग लेने दो 

या जुगनुओं को छोड़ दो यहाँ कुछ पल 
या फिर हमें भी इक चराग़ लेने दो  

सोमवार, 4 दिसंबर 2017

कहानी खोल के रख दी है कुछ मजबूत तालों ने ...

लहू का रंग है यकसाँ कहा शमशीर भालों ने
लगा डाली है फिर भी आग बस्ती के दलालों ने 

यकीनन दूर है मंज़िल मगर मैं ढूंढ ही लूंगा
झलक दिखलाई है मुझको अँधेरे में उजालों ने

वो लड़की है तो माँ के पेट में क्या ख़त्म हो जाए 
झुका डाली मेरी गर्दन कुछ ऐसे ही सवालों ने

अलग धर्मों के भूखे नौजवानों का था कुछ झगड़ा
खबर दंगों की झूठी छाप दी अख़बार वालों ने

हवा भी साथ बेशर्मी से इनका दे रही है अब
शहर के हुक्म से जंगल जला डाला मशालों ने

वो अपना था पराया था वो क्या कुछ ले के भागा है 
कहानी खोल के रख दी है कुछ मजबूत तालों ने 

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

रँग चुके हैं यहाँ सब तेरे रंग में ...

अपने मन मोहने सांवले रंग में
श्याम रँग दो हमें सांवरे रंग में

मैं ही अग्नि हूँ जल पृथ्वी वायु गगन
आत्मा है अजर सब मेरे रंग में

ओढ़ कर फिर बसंती सा चोला चलो
आज धरती को रँग दें नए रंग में

थर-थराते लबों पर सुलगती हंसी
आओ रँग दें तुम्हें इश्क के रंग में

आसमानी दुपट्टा छलकते नयन
सब ही मदहोश हैं मद भरे रंग में

रंग भगवे में रँगता हूँ दाड़ी तेरी
तुम भी चोटी को रँग दो हरे रंग में

जाम दो अब के दे दो ज़हर साकिया  
रँग चुके हैं यहाँ सब तेरे रंग में 

(तरही गज़ल - पंकज सुबीर जी के मुशायरे में लिखी, जो दिल के 
हमेशा करीब रहती है)  

सोमवार, 20 नवंबर 2017

हम तरक्की के सौपान चढ़ते रहे ...

हम बुज़ुर्गों के चरणों में झुकते रहे
पद प्रतिष्ठा के संजोग बनते रहे

वो समुंदर में डूबेंगे हर हाल में 
नाव कागज़ की ले के जो चलते रहे

इसलिए बढ़ गईं उनकी बदमाशियाँ
हम गुनाहों को बच्चों के ढकते रहे

आश्की और फकीरी खुदा का करम
डूब कर ज़िन्दगी में उभरते रहे

धूप बारिश हवा सब से महरूम हैं
फूल घर के ही अंदर जो खिलते रहे

साल के दो दिनों को मुक़र्रर किया
देश भक्ति के गीतों को सुनते रहे

दोस्तों की दुआओं में कुछ था असर 
हम तरक्की के सौपान चढ़ते रहे

सोमवार, 13 नवंबर 2017

ये कहानी भी सुनानी, है अभी तक गाँव में ...

बस वही मेरी निशानी, है अभी तक गाँव में
बोलता था जिसको नानी, है अभी तक गाँव में

खंडहरों में हो गई तब्दील पर अपनी तो है  
वो हवेली जो पुरानी, है अभी तक गाँव में

चाय तुलसी की, पराठे, मूफली गरमा गरम
धूप सर्दी की सुहानी, है अभी तक गाँव में

याद है घुँघरू का बजना रात के चोथे पहर
क्या चुड़ेलों की कहानी, है अभी तक गाँव में ?

लौट के आऊँ न आऊँ पर मुझे विश्वास है
जोश, मस्ती और जवानी, है अभी तक गाँव में

दूर रह के गाँव से इतने दिनों तक क्या किया   
ये कहानी भी सुनानी, है अभी तक गाँव में 

(तरही गज़ल - पंकज सुबीर जी के मुशायरे में लिखी, जो दिल के 
हमेशा करीब है)  

सोमवार, 6 नवंबर 2017

ज़िंदगी के गीत खुल के गाइए ...

जुगनुओं से यूँ न दिल बहलाइए
जा के पुडिया धूप की ले आइए

पोटली यादों की खुलती जाएगी
वक़्त की गलियों से मिलते जाइए

स्वाद बचपन का तुम्हें मिल जाएगा
फिर उसी ठेले पे रुक के खाइए

होंसला मजबूत होता जाएगा
इम्तिहानों से नहीं घबराइए

फूल, बादल, तितलियाँ सब हैं यहाँ
बेवजह किब्ला कभी मुस्काइए

सुर नहीं तो क्या हुआ मौका सही
जिंदगी के गीत खुल के गाइए

माँ सभी नखरे उठा सकती है फिर 
आप बच्चे बन के तो इठ्लाईए

मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

गुज़रे थे मेरे दिन भी कुछ माँ की इबादत में ...

लिक्खी है गज़ल ताज़ा खामोश इबारत में
दिन रात इसे रखना, होठों की हिफाज़त में

हंसती है कहीं पायल, रोते हैं कहीं घुँघरू
लटकी हैं कई यादें जालों सी इमारत में

तारीफ़ नहीं करते अब मुझपे नहीं मरते
आता है मज़ा उनको दिन रात शिकायत में

छलके थे उदासी में, निकले हैं ख़ुशी बन कर
उलझे ही रहे हम तो आँखों की सियासत में

हालांकी दिया तूने ज़्यादा ही ज़रुरत से
आता है मजा लेकिन बचपन की शरारत में

इस दौर के लोगों का कैसा है चलन देखो 
अपने ही सभी शामिल रिश्तों की तिजारत में

हर वक़्त मेरे सर पर रहमत सी बरसती है 
गुज़रे थे मेरे दिन भी कुछ माँ की इबादत में

सोमवार, 25 सितंबर 2017

माँ ...

पाँच साल ... क्या सच में पाँच साल हो गए माँ को गए ... नियति के नाम पे कई बार नाकाम कोशिश करता हूँ खुद को समझाने की ... बस एक यही पल था जिसको मैं सोच न सका था ... उस एक लम्हे के पीछे खड़ा हो कर, उस लम्हे को सोचना चाहूँ तो भी सोच नहीं पाता ... जड़ हो जाता हूँ ... माँ का रिश्ता शायद यही है ... तुम्हें हमेशा अपने आस-पास ही पाता हूँ ...  

ओले, बारिश, तीखी गर्मी, सर पर ठंडी छतरी माँ
जोश, उमंगें, हंसी, ठिठोली, चुस्ती, फुर्ती, मस्ती माँ

घर के बूढ़े, चुप से पापा, चाचा चाची, भैया मैं
जाने किस कच्चे धागे से, सब को जोड़े रखती माँ

ऊँच नीच या तू तू मैं मैं, अगर कभी जो हो जाती 
सब तो आपस में लड़ लेते, पर खुद से ही लड़ती माँ

दर्द, उदासी, दुखड़े मन के, चेहरे से सब पढ़ लेती
छू-मंतर कर देती झट से, उम्मीदों की गठरी माँ 

पतली दुबली जाने किस पल काया में चाबी भरती
सब सो जाते तब सोती, पर सबसे पहले उठती माँ

चिंतन मनन, नसीहत निश्चय, साहस निर्णय, कर्मठता 
पल-पल आशा संस्कार, जीवन में पोषित करती माँ

सोमवार, 18 सितंबर 2017

मिलते हैं मेरे जैसे, किरदार कथाओं में ...

बारूद की खुशबू है, दिन रात हवाओं में
देता है कोई छुप कर, तकरीर सभाओं में

इक याद भटकती है, इक रूह सिसकती है
घुंघरू से खनकते हैं, खामोश गुफाओं में

बादल तो नहीं गरजे, बूँदें भी नहीं आईं
कितना है असर देखो, आशिक की दुआओं में

चीज़ों से रसोई की, अम्मा जो बनाती थी
देखा है असर उनका, देखा जो दवाओं में

हे राम चले आओ, उद्धार करो सब का
कितनी हैं अहिल्याएं, कल-युग की शिलाओं में

जीना तो तेरे दम पर, मरना तो तेरी खातिर 
मिलते हैं मेरे जैसे, किरदार कथाओं में 

सोमवार, 11 सितंबर 2017

राधा के साथ मुरली-मनोहर चले गए ...

भुगतान हो गया तो निकल कर चले गए
नारे लगाने वाले अधिकतर चले गए

माँ बाप को निकाल के घर, खेत बेच कर
बेटे हिसाब कर के बराबर चले गए

सूखी सी पत्तियाँ तो कभी धूल के गुबार
खुशबू तुम्हारी आई तो पतझड़ चले गए

खिड़की से इक उदास नज़र ढूंढती रही
पगडंडियों से लौट के सब घर चले गए 

बच्चे थे तुम थीं और गुटर-गूं थी प्रेम की 
छज्जे से उड़ के सारे कबूतर चले गए

तुम क्या गए के प्रीत की सरगम चली गई 
राधा के साथ मुरली-मनोहर चले गए

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

दीवारों की दरारों में किसी का कान तो होगा ...

हुआ है हादसा इतना बड़ा वीरान तो होगा
अभी निकला है दहशत से शहर सुनसान तो होगा

घुसे आये मेरे घर में चलो तस्लीम है लेकिन 
तलाशी की इजाज़त का कोई फरमान तो होगा

बिमारी भी है भूखा पेट भी हसरत भी जीने की
जरूरत के लिए घर में मेरे सामान तो होगा  

अकेले नाव कागज़ की लिए सागर में उतरा हूँ 
हमारे होंसले पर आज वो हैरान तो होगा

कभी ये सोच कर भी काम कर लेती है दुनिया तो 
न हो कुछ फायदा लेकिन मेरा नुक्सान तो होगा 

दबा लेना अभी तुम राज़ अपने दिल के अन्दर ही 
दीवारों की दरारों में किसी का कान तो होगा

सोमवार, 28 अगस्त 2017

माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर ...

बहरों का है शहर ये संभल जाइए हुजूर
क्यों कह रहे हैं अपनी गज़ल जाइए हुजूर

बिखरे हुए जो राह में पत्थर समेट लो 
कुछ दूर कांच का है महल जाइए हुजूर

जो आपकी तलाश समुन्दर पे ख़त्म है
दरिया के साथ साथ निकल जाइए हुजूर

क्यों बात बात पर हो ज़माने को कोसते
अब भी समय है आप बदल जाइए हुज़ूर

मुद्दों की बात पर न कभी साथ आ सके
अब देश पे बनी है तो मिल जाइए हुजूर

हड्डी गले की बन के अटक जाएगी कभी 
छोटी सी मछलियां हैं निगल जाइए हुजूर

बूढ़ी हुई तो क्या है उठा लेगी गोद में 
माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर

सोमवार, 21 अगस्त 2017

जो अपने दिल में इन्कलाब लिए बैठा है ...

वो रौशनी का हर हिसाब लिए बैठा है
जो घर में अपने आफताब लिए बैठा है

इसी लिए के छोड़नी है उसे ये आदत 
वो पी नहीं रहा शराब लिए बैठा है

पता है सच उसे मगर वो सुनेगा सब की 
वो आईने से हर जवाब लिए बैठा है

वो अजनबी सा बन के यूँ ही निकल जाएगा
वो अपने चहरे पे नकाब लिए बैठा है

दिलों के खेल खेलने की है आदत उसकी 
वो आश्की की इक किताब लिए बैठा है

करीब उसके मौत भी न ठहर पाएगी 
जो अपने दिल में इन्कलाब लिए बैठा है

सोमवार, 14 अगस्त 2017

सर्प कब तक आस्तीनों में छुपे पलते रहेंगे ...

सभी को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभ-कामनाएं ... इस पावन पर्व की पूर्व संध्या पर आज के हालात पे लिखी गज़ल प्रस्तुत है ... आशा है सबका स्नेह मिलता रहेगा ...

जब तलक नापाक हरकत शत्रु की सहते रहेंगे
देश की सीमाओं पर सैनिक सदा मरते रहेंगे

पत्थरों से वार कर उक्सा रहे हैं देश-द्रोही
और कब तक हम अहिंसा मार्ग पर चलते रहंगे

मानता हूँ सिर के बदले सिर नहीं क़ानून अपना 
पर नहीं स्वीकार अपने वीर यूँ कटते रहेंगे

दक्ष हो कर आज फिर प्रतिशोध तो लेना पड़ेगा
सर्प कब तक आस्तीनों में छुपे पलते रहेंगे

एक ही आघात में अब क्यों नहीं कर दें बराबर 
शांति चर्चा, वार्ताएं बाद में करते रहेंगे 

बुधवार, 2 अगस्त 2017

हर युग के कुछ सवाल हैं जो हल नहीं हुए ...

कविता के लम्बे दौर से निकलने का मन तो नहीं था, फिर लगा कहीं गज़ल लिखना भूल तो नहीं गया ... इसलिए आज ग़ज़ल के साथ हाजिर हूँ आपके बीच ... आशा है सबका स्नेह मिलता रहेगा ... 

डूबे ज़रुर आँख के काजल नहीं हुए
कुछ लोग हैं जो इश्क में पागल नहीं हुए 

है आज अपने हाथ में करना है जो करो
कुछ भी न कर सकोगे अगर कल नहीं हुए

अब तक तो हादसों में ये मुमकिन नहीं हुआ
गोली चली हो लोग भी घायल नहीं हुए

आकाश के करीब न मिट्टी के पास ही
अच्छा है आसमान के बादल नहीं हुए

सूरज की रोशनी को वो बांटेंगे किस कदर 
सर पर कभी जो धूप के कंबल नहीं हुए

हो प्रश्न द्रोपदी का के सीता की बात हो  
हर युग के कुछ सवाल हैं जो हल नहीं हुए 

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

वक़्त ज़िंदगी और नैतिकता ...

क्या सही क्या गलत ... खराब घुटनों के साथ रोज़ चलते रहना ज़िंदगी की जद्दोजहद नहीं दर्द है उम्र भर का ... एक ऐसा सफ़र जहाँ मरना होता है रोज़ ज़िंदगी को ... ऐसे में ... सही बताना क्या में सही हूँ ...

फुरसत के सबसे पहले लम्हे में
बासी यादों की पोटली लिए  
तुम भी चली आना टूटी मज़ार के पीछे
सुख दुःख के एहसास से परे
गुज़ार लेंगे कुछ पल सुकून के

की थोड़ा है ज़िंदगी का बोझ  
सुकून के उस एक पल के आगे

कल फिर से ढोना है टूटे कन्धों पर
पत्नी की तार-तार साड़ी का तिरस्कार
माँ की सूखी खांसी की खसक  
पिताजी के सिगरेट का धुंवा
बढ़ते बच्चों की तंदुरुस्ती का खर्च
और अपने लिए ...
साँसों के चलते रहने का ज़रिया  

नैतिकता की बड़ी बड़ी बातों सोचने का 
वक़्त कहाँ देती है ज़िंदगी  

बुधवार, 19 जुलाई 2017

यादें ... बस यादें

यादें यादें यादें ... क्या आना बंद होंगी ... काश की रूठ जाएँ यादें ... पर लगता तो नहीं और साँसों तक तो बिलकुल भी नहीं ... क्यों वक़्त जाया करना ...

मिट्टी की
कई परतों के बावजूद
हलके नहीं होते
कुछ यादों की निशान
हालांकि मूसलाधार बारिश के बाद
साफ़ हो जाता है आसमान

साफ़ हो जाती हैं
गर्द की पीली चादर ओढ़े
हरी हरी मासूम पत्तियां

साफ़ हो जाती हैं
उदास घरों की टीन वाली छतें

ओर ... ये काली सड़क भी
रुकी रहती है जो
तेरे लौटने के इंतज़ार में

इंतज़ार है जो ख़त्म नहीं होता
जंगली गुलाब है 
जो खिलता बंद नहीं करता   

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

आंख-मिचोली ... नींद और यादों की

नींद और यादें ... शायद दुश्मन हैं अनादी काल से ... एक अन्दर तो दूजा बाहर ... पर क्यों ... क्यों नहीं मधुर स्वप्न बन कर उतर आती हैं यादें आँखों में ... जंगली गुलाब भी तो ऐसे ही खिल उठता है सुबह के साथ ...  

सो गए पंछी घर लौटने के बाद  
थका हार दिन, बुझ गया अरब सागर की आगोश में  
गहराती रात की उत्ताल तरंगों के साथ
तेरी यादों का शोर किनारे थप-थपाने लगा
आसमान के पश्चिम छोर पे
टूटते तारे को देखते देखते, तुम उतर जाती हो आँखों में  
(नींद तो अभी दस्तक भी न दे पाई थी)

जागते रहो” की आवाज़ के साथ
घूमती है रात, गली की सुनसान सड़कों पर 
पर नींद है की नहीं आती
तुम जो होती हो 
सुजागी आँखों में अपना कारोबार फैलाए  

रात का क्या, यूं ही गुज़र जाती है

और ठीक उस वक़्त 
जब पूरब वाली पहाड़ी के पीछे लाल धब्बों की दादागिरी
जबरन मुक्त करती है श्रृष्टि को अपने घोंसले से
छुप जाती हो तुम बोझिल पलकों में

उनींदी आँखों में नीद तो उस वक़्त भी नहीं आती

हाँ ... डाली पे लगा जंगली गुलाब 
जाने क्यों मुस्कुराने लगता है उस पल ... 

बुधवार, 5 जुलाई 2017

चार दिन ... क्या सच में ...

तुम ये न समझना की ये कोई उलाहना है ... खुद से की हुई बातें दोहरानी पढ़ती हैं कई बार ... खुद के होने का  एहसास भी तो जरूरी है जीने के लिए ... हवा भर लेना ही तो नहीं ज़िंदगी ... किसी का एहसास न घुला हो तो साँसें, साँसें कहाँ ...

कितनी बार सपनों को हवा दे कर
यूं ही छोड़ दिया तुमने
वक्त की तन्हाई ने उन्हें पनपने नहीं दिया 

दिल से मजबूर मैं
हर बार नए सपने तुम्हारे साथ ही बुनता रहा   
हालांकि जानता था उनका हश्र

सांसों से बेहतर कौन समझेगा दिल की बेबसी
चलने का आमंत्रण नहीं 
खुद का नियंत्रण नहीं
बस चलते रहो ...

चलते रहो पर कब तक

कहते हैं चार दिन का जीवन

जैसे की चार दिन ही हों बस 
उम्र गुज़र जाती है कभी कभी एक दिन जीने में  
ऐसे में चार दिन जीने की मजबूरी
वो भी टूटते सपनों के साथ
नासूर बन जाता है जिनका दंश ...  

रह रह के उठती पीड़ सोने नहीं देती
और सपने देखने की आदत जागने नहीं देती 
उम्र है ... की गुज़रती जाती है इस कशमकश में