स्वप्न मेरे: माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर ...

सोमवार, 28 अगस्त 2017

माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर ...

बहरों का है शहर ये संभल जाइए हुजूर
क्यों कह रहे हैं अपनी गज़ल जाइए हुजूर

बिखरे हुए जो राह में पत्थर समेट लो 
कुछ दूर कांच का है महल जाइए हुजूर

जो आपकी तलाश समुन्दर पे ख़त्म है
दरिया के साथ साथ निकल जाइए हुजूर

क्यों बात बात पर हो ज़माने को कोसते
अब भी समय है आप बदल जाइए हुज़ूर

मुद्दों की बात पर न कभी साथ आ सके
अब देश पे बनी है तो मिल जाइए हुजूर

हड्डी गले की बन के अटक जाएगी कभी 
छोटी सी मछलियां हैं निगल जाइए हुजूर

बूढ़ी हुई तो क्या है उठा लेगी गोद में 
माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है